बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
उत्तर -
1. दण्ड का प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त
दण्ड के सिद्धान्त में सबसे प्राचीन सिद्धान्त प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त की मान्यता है जैसे को तैसा। इस सिद्धान्त में यह माना गया है कि अनुचित कार्य करने वाले को अवश्य दण्ड दिया जाना चाहिए।
सिजविक के अनुसार, "दण्ड का व्यवस्थापन सामाजिक सुरक्षा के लिए किया गया है तथा इस आधार पर प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त एक सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त है।'
प्राचीन समय में जर्मन में दण्ड व्यवस्था में यही रूप प्रचलित था अर्थात् आँखों के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत आदि प्रसिद्ध विद्वान काण्ट ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया। इस सिद्धान्त में बुरे कार्य करने पर केवल दण्ड का ही प्रावधान नहीं था अपितु कार्यों के लिए पुरस्कार भी दिये जाते थे।
ब्रेडले के अनुसार, "हम दण्ड इसलिए भुगतते हैं कि हम इसके पात्र हैं, इसका कोई दूसरा कारण नहीं। इस सिद्धान्त में यह माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी की हत्या करता है तो उसके लिए उसे प्राणदण्ड मिलना चाहिए।
दण्ड के सिद्धान्त को लागू करने पर अपराधी यह मानता है कि दण्ड वस्तुतः उसी के कर्मों का फल है। तभी वह अपराधों से मुख मोड़ लेता है। वह अपराध से घृणा करने लगता है। दण्ड का यह सिद्धान्त प्रायः सभी आदिम समाजों में पाया जाता है।
इस सिद्धान्त की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भी प्रस्तुत की गई। इसके अनुसार, यह माना गया कि प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि वह किसी व्यक्ति के साथ वैसा ही व्यवहार करे जैसा व्यवहार वह व्यक्ति उसके साथ करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त का उद्गम स्थान मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है।
आलोचना - इस सिद्धान्त को वर्तमान समय में अनुचित माना गया है तथा इसकी निम्न प्रकार से आलोचना की गई है.
1. इस सिद्धान्त में अपराध के अनुपात का निर्धारण करना सम्भव नहीं होता। यदि व्यक्ति को किसी कारणवश अधिक या कम दण्ड दिया जाता है तो उसे अन्यायपूर्ण कहा जायेगा। साथ ही यह न्यायसंगत भी नहीं है।
2. इस सिद्धान्त को धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध भी कहा गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधी के साथ किसी भी प्रकार की दया, सहानुभूति तथा क्षमा नहीं की जा सकती जिसे धर्म में उचित नहीं माना जा सकता।
3. इस सिद्धान्त में मात्र अपराध पर ध्यान दिया जाता है, अपराध किन परिस्थितियों में हुआ, इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
4. इस सिद्धान्त का उद्देश्य अपराधी व्यक्ति को केवल दण्ड द्वारा कष्ट देना ह जबकि यह उचित नहीं है। यह मानवीय दृष्टिकोण से अमानवीय तथा कष्टप्रद है।
5. कुछ विद्वानों के अनुसार इस दण्ड व्यवस्था से अपराधों की संख्या में कमी नहीं आती अपितु बदले की भावना बढ़ती रहती है।
अतः मानवीय दृष्टिकोण से दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त को उचित नहीं कहा जा सकता। यदि तटस्थ भाव से देखा जाय तो एक अनुचित कार्य का निराकरण दूसरे अनुचित कार्य से करना उचित नहीं कहा जा सकता।
2. दण्ड का सुधारात्मक सिद्धान्त
दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त के अन्तर्गत अपराधी के सुधार के लिए उसे उपचार तथा दण्ड दोनों को दिया जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड में व्यक्ति तथा समाज को शिक्षित करने की भावना निहित है। दण्ड के इस सिद्धान्त का उद्देश्य न तो प्रतिकार है और न ही यह अपराध की पुनरावृत्ति की रोकथाम है। वास्तव में इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य अपराधी का सुधार करना है।
इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड का उद्देश्य दण्ड के लिए नहीं अपितु सुधार के लिए है। इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य अनुचित तथा आपराधिक कृत्यों की रोकथाम नहीं बल्कि अपराधी की मानसिक प्रवृत्तियों तथा उसके चरित्र में स्थायी परिवर्तन उत्पन्न करके उसे समाज का उत्तरदायी तथा सम्मानित नागरिक बनाना है।
इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधी व्यक्ति पर अपराध की अपेक्षा दया, सहानुभूति तथा मानवीय व्यवहार का अच्छा प्रभाव पड़ता है। वह आपराधिक भावना से दूर हटता है। इस सिद्धान्त को मानने वालों के अनुसार, अपराधी व्यक्ति में आचरण सम्बन्धी लक्षण जन्मजात नहीं होते हैं अपितु उनका सर्जन समाज में ही होता है। यदि उनकी रोकथाम कर व्यक्ति की मनोवृत्ति को बदल दिया जाये तो अपराध वृत्ति को समाप्त किया जा सकता है।
इविंग के अनुसार, "सुधारात्मक दण्ड वह होता है, जिससे दण्ड की प्रक्रिया स्वमेव व्यक्ति सुधारात्मक दिशा की ओर परिवर्तन लाती है।'
सेठना के अनुसार, "सुधारात्मक दण्ड व्यक्तिगत रूप से ध्यान देकर किए गए उपचार और पुनर्शिक्षा के आधार पर आश्रित दण्ड व्यवस्था पर ही आधारित है। अपराधी को एक स्वस्थ तथा अनुकूल परिणाम में रखकर ही सुधारा जा सकता है। यह सिद्धान्त अपराध के लिए अपराधी को ही नहीं, अपितु पर्यावरण, दशाओं तथा समाज को भी समान रूप से दोषी मानता है।"
बाइबिल में भी कहा गया है कि वे धन्य हैं जो अपराधी को सुधारते हैं न कि उसका अन्त करते हैं। वे धन्य हैं जो पापी व्यक्ति को एक गुणी व्यक्ति बनाते हैं।
आलोचना - यह बात सत्य है कि दण्ड का सुधारात्मक सिद्धान्त अन्य सिद्धान्तों की तुलना में श्रेष्ठ है। यह मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित है फिर भी इस सिद्धान्त की आलोचना निम्न प्रकार से की गई है -
1. इस सिद्धान्त में अपराधी व्यक्ति के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की बात कही गयी है जो व्यावहारिक दृष्टि से बहुत कठिन है।
2. यह बात मानी जा सकती है कि प्रतिकूल सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप व्यक्ति अपराधी बनते हैं, परन्तु इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि कुछ अपराधी पेशेवर होते हैं तथा ऐसे अपराधी जान-बूझकर अपराध करते हैं। ऐसे अपराधियों में सुधार करना प्रायः कठिन होता है।
3. कुछ विद्वानों के लिए अपराध के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था होनी ही चाहिए अन्य कठोर दण्ड के अभाव में अपराधों एवं अपराधियों की संख्या में वृद्धि होने लगती है।
4. कुछ विद्वानों का यह मानना है कि दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त को वास्तव में दण्ड का सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें दण्ड का कोई प्रावधान नहीं होता है।
3. दण्ड का प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त
दण्ड का एक प्रमुख सिद्धान्त दण्ड का प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत यह माना जाता है कि दण्ड का मुख्य उद्देश्य अपराध तथा अपराधी का सुधार है। इस सिद्धान्त के समर्थकों में बैन्थम का नाम प्रमुख है। इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड की व्यवस्था होने पर व्यक्ति अपराध करने में संकोच करते हैं।
रूसो के अनुसार, "विधि का मूल्य इससे आँकना चाहिए कि उसने कितने अपराधों को घटित होने से रोका, न कि इस बात से कि उसने कितने अपराधियों को दण्डित किया।'
सर्वमान्य मान्यता के अनुसार, यह भी सत्य है कि व्यक्ति उन कार्यों से बचता है जो उसे दुःख प्रदान करते हैं।
आलोचना - इस सिद्धान्त की आलोचना के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें कही गई हैं -
1. कुछ अपराधी ऐसे भी होते हैं जिन पर दण्ड के प्रभाव की अत्यधिक चिन्ता होती है, उदाहरण के लिए मानसिक रूप से दुर्बल व्यक्ति, जिन पर इस सिद्धान्त को लागू करना उचित नहीं है।
2. इस सिद्धान्त में साधारण अपराध के लिए भी कठोर दण्ड दिये जाते हैं जो अनुचित तथा अमानवीय है। इससे सदैव विद्रोह की स्थिति बनी रहती है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि दण्ड के अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए परन्तु सभी सिद्धान्तों का एक सामान्य उद्देश्य अपराध का अन्त था। इसी कारण विभिन्न उपाय या रोकथाम अपनाए गए जिनका अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव व्यक्तियों पर पड़ा।
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