BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
लोगों की राय

बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।

अथवा
दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।

उत्तर -

1. दण्ड का प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त

दण्ड के सिद्धान्त में सबसे प्राचीन सिद्धान्त प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त की मान्यता है जैसे को तैसा। इस सिद्धान्त में यह माना गया है कि अनुचित कार्य करने वाले को अवश्य दण्ड दिया जाना चाहिए।

सिजविक के अनुसार, "दण्ड का व्यवस्थापन सामाजिक सुरक्षा के लिए किया गया है तथा इस आधार पर प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त एक सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त है।'

प्राचीन समय में जर्मन में दण्ड व्यवस्था में यही रूप प्रचलित था अर्थात् आँखों के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत आदि प्रसिद्ध विद्वान काण्ट ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया। इस सिद्धान्त में बुरे कार्य करने पर केवल दण्ड का ही प्रावधान नहीं था अपितु कार्यों के लिए पुरस्कार भी दिये जाते थे।

ब्रेडले के अनुसार, "हम दण्ड इसलिए भुगतते हैं कि हम इसके पात्र हैं, इसका कोई दूसरा कारण नहीं। इस सिद्धान्त में यह माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी की हत्या करता है तो उसके लिए उसे प्राणदण्ड मिलना चाहिए।

दण्ड के सिद्धान्त को लागू करने पर अपराधी यह मानता है कि दण्ड वस्तुतः उसी के कर्मों का फल है। तभी वह अपराधों से मुख मोड़ लेता है। वह अपराध से घृणा करने लगता है। दण्ड का यह सिद्धान्त प्रायः सभी आदिम समाजों में पाया जाता है।

इस सिद्धान्त की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भी प्रस्तुत की गई। इसके अनुसार, यह माना गया कि प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि वह किसी व्यक्ति के साथ वैसा ही व्यवहार करे जैसा व्यवहार वह व्यक्ति उसके साथ करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त का उद्गम स्थान मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है।

आलोचना - इस सिद्धान्त को वर्तमान समय में अनुचित माना गया है तथा इसकी निम्न प्रकार से आलोचना की गई है.

1. इस सिद्धान्त में अपराध के अनुपात का निर्धारण करना सम्भव नहीं होता। यदि व्यक्ति को किसी कारणवश अधिक या कम दण्ड दिया जाता है तो उसे अन्यायपूर्ण कहा जायेगा। साथ ही यह न्यायसंगत भी नहीं है।

2. इस सिद्धान्त को धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध भी कहा गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधी के साथ किसी भी प्रकार की दया, सहानुभूति तथा क्षमा नहीं की जा सकती जिसे धर्म में उचित नहीं माना जा सकता।

3. इस सिद्धान्त में मात्र अपराध पर ध्यान दिया जाता है, अपराध किन परिस्थितियों में हुआ, इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

4. इस सिद्धान्त का उद्देश्य अपराधी व्यक्ति को केवल दण्ड द्वारा कष्ट देना ह जबकि यह उचित नहीं है। यह मानवीय दृष्टिकोण से अमानवीय तथा कष्टप्रद है।

5. कुछ विद्वानों के अनुसार इस दण्ड व्यवस्था से अपराधों की संख्या में कमी नहीं आती अपितु बदले की भावना बढ़ती रहती है।

अतः मानवीय दृष्टिकोण से दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त को उचित नहीं कहा जा सकता। यदि तटस्थ भाव से देखा जाय तो एक अनुचित कार्य का निराकरण दूसरे अनुचित कार्य से करना उचित नहीं कहा जा सकता।

2. दण्ड का सुधारात्मक सिद्धान्त

दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त के अन्तर्गत अपराधी के सुधार के लिए उसे उपचार तथा दण्ड दोनों को दिया जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड में व्यक्ति तथा समाज को शिक्षित करने की भावना निहित है। दण्ड के इस सिद्धान्त का उद्देश्य न तो प्रतिकार है और न ही यह अपराध की पुनरावृत्ति की रोकथाम है। वास्तव में इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य अपराधी का सुधार करना है।

इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड का उद्देश्य दण्ड के लिए नहीं अपितु सुधार के लिए है। इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य अनुचित तथा आपराधिक कृत्यों की रोकथाम नहीं बल्कि अपराधी की मानसिक प्रवृत्तियों तथा उसके चरित्र में स्थायी परिवर्तन उत्पन्न करके उसे समाज का उत्तरदायी तथा सम्मानित नागरिक बनाना है।

इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधी व्यक्ति पर अपराध की अपेक्षा दया, सहानुभूति तथा मानवीय व्यवहार का अच्छा प्रभाव पड़ता है। वह आपराधिक भावना से दूर हटता है। इस सिद्धान्त को मानने वालों के अनुसार, अपराधी व्यक्ति में आचरण सम्बन्धी लक्षण जन्मजात नहीं होते हैं अपितु उनका सर्जन समाज में ही होता है। यदि उनकी रोकथाम कर व्यक्ति की मनोवृत्ति को बदल दिया जाये तो अपराध वृत्ति को समाप्त किया जा सकता है।

इविंग के अनुसार, "सुधारात्मक दण्ड वह होता है, जिससे दण्ड की प्रक्रिया स्वमेव व्यक्ति सुधारात्मक दिशा की ओर परिवर्तन लाती है।'

सेठना के अनुसार, "सुधारात्मक दण्ड व्यक्तिगत रूप से ध्यान देकर किए गए उपचार और पुनर्शिक्षा के आधार पर आश्रित दण्ड व्यवस्था पर ही आधारित है। अपराधी को एक स्वस्थ तथा अनुकूल परिणाम में रखकर ही सुधारा जा सकता है। यह सिद्धान्त अपराध के लिए अपराधी को ही नहीं, अपितु पर्यावरण, दशाओं तथा समाज को भी समान रूप से दोषी मानता है।"

बाइबिल में भी कहा गया है कि वे धन्य हैं जो अपराधी को सुधारते हैं न कि उसका अन्त करते हैं। वे धन्य हैं जो पापी व्यक्ति को एक गुणी व्यक्ति बनाते हैं।

आलोचना - यह बात सत्य है कि दण्ड का सुधारात्मक सिद्धान्त अन्य सिद्धान्तों की तुलना में श्रेष्ठ है। यह मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित है फिर भी इस सिद्धान्त की आलोचना निम्न प्रकार से की गई है -

1. इस सिद्धान्त में अपराधी व्यक्ति के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की बात कही गयी है जो व्यावहारिक दृष्टि से बहुत कठिन है।

2. यह बात मानी जा सकती है कि प्रतिकूल सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप व्यक्ति अपराधी बनते हैं, परन्तु इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि कुछ अपराधी पेशेवर होते हैं तथा ऐसे अपराधी जान-बूझकर अपराध करते हैं। ऐसे अपराधियों में सुधार करना प्रायः कठिन होता है।

3. कुछ विद्वानों के लिए अपराध के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था होनी ही चाहिए अन्य कठोर दण्ड के अभाव में अपराधों एवं अपराधियों की संख्या में वृद्धि होने लगती है।

4. कुछ विद्वानों का यह मानना है कि दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त को वास्तव में दण्ड का सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें दण्ड का कोई प्रावधान नहीं होता है।

3. दण्ड का प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त

दण्ड का एक प्रमुख सिद्धान्त दण्ड का प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत यह माना जाता है कि दण्ड का मुख्य उद्देश्य अपराध तथा अपराधी का सुधार है। इस सिद्धान्त के समर्थकों में बैन्थम का नाम प्रमुख है। इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड की व्यवस्था होने पर व्यक्ति अपराध करने में संकोच करते हैं।

रूसो के अनुसार, "विधि का मूल्य इससे आँकना चाहिए कि उसने कितने अपराधों को घटित होने से रोका, न कि इस बात से कि उसने कितने अपराधियों को दण्डित किया।'

सर्वमान्य मान्यता के अनुसार, यह भी सत्य है कि व्यक्ति उन कार्यों से बचता है जो उसे दुःख प्रदान करते हैं।

आलोचना - इस सिद्धान्त की आलोचना के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें कही गई हैं -

1. कुछ अपराधी ऐसे भी होते हैं जिन पर दण्ड के प्रभाव की अत्यधिक चिन्ता होती है, उदाहरण के लिए मानसिक रूप से दुर्बल व्यक्ति, जिन पर इस सिद्धान्त को लागू करना उचित नहीं है।

2. इस सिद्धान्त में साधारण अपराध के लिए भी कठोर दण्ड दिये जाते हैं जो अनुचित तथा अमानवीय है। इससे सदैव विद्रोह की स्थिति बनी रहती है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि दण्ड के अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए परन्तु सभी सिद्धान्तों का एक सामान्य उद्देश्य अपराध का अन्त था। इसी कारण विभिन्न उपाय या रोकथाम अपनाए गए जिनका अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव व्यक्तियों पर पड़ा।

...पीछे | आगे....

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book